महान गुरु और उनके शिष्य
द्रोणाचार्य और एकलव्य – गुरु और शिष्यों की जोड़ी में सबसे चर्चित जोड़ियों में इनका नाम आता है, लेकिन एकलव्य को गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा कैसे मिली, यह जानकर आप भी हैरान हो जायेंगे । दरअसल गुरु द्रोणाचार्य ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ग को ही शिक्षा देते थे, लेकिन एकलव्य एक निषाद पुत्र था । जब एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य के पास शिक्षा पाने की इच्छा से गए तो उन्होंने एकलव्य को मना करते हुए वापस भेज दिया, लेकिन एकलव्य भी अपनी निष्ठा का पक्का था । उसने गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम के पास ही एक कुटिया बनाई और वहीं पर द्रोणाचार्य की प्रतिमा बनाकर उसी के सामने एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगे । एकाग्र मन से लगातार अभ्यास और गुरु का ध्यान करने के कारण वह धनुष चलाने में इतना निपुण हो गये कि बड़े-बड़े धुरंधर भी उसके सामने फेल थे, लेकिन इस बात का पता स्वयं गुरु द्रोणाचार्य को भी नहीं था । एक दिन जब द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के साथ आखेट पर गए तब उन्हें इस बारे में पता चला और एकलव्य की अपने गुरु के प्रति ऐसी निष्ठा थी कि उसने गुरु द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा के रूप में अपना अंगूठा ही दे दिया ।
समर्थ गुरु रामदास और छत्रपति शिवाजी महाराज – छत्रपति शिवाजी की अपने गुरु समर्थ रामदास के प्रति निष्ठा जग – जाहिर है । गुरु रामदास अपने सभी शिष्यों में सबसे ज्यादा प्रेम शिवाजी से ही करते थे । एक बार समर्थ गुरु ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेनी चाही तो वे अपने शिष्यों के साथ एक दिन वन में गए और वहां पेट में दर्द का नाटक करते हुए कराहने लगे और नीचे जमीन पर लेट गए । शिवाजी अपने गुरु की पीड़ा को देखकर बड़े दुःखी हुए और समर्थ गुरु से पूछने लगे कि इसकी कोई दवा नहीं है क्या गुरुदेव, तब समर्थ गुरु ने कहा कि इसकी सिर्फ एक ही दवा है – बाघिन का ताजा दूध । पीड़ा का उपाय सुनते ही शिवाजी तुरंत बाघिन का दूध लाने के लिये समर्थ गुरु का कमंडलु लेकर निकल पड़े और फिर दूध लेकर ही वापस लौटे । गुफा में लौटने पर समर्थ गुरु ने शिवाजी से कहा – तुम धन्य हो शिवा । तुम्हारे जैसे निष्ठावान शिष्य के रहने पर किसी गुरु को पीड़ा कैसे हो सकती है ! इस तरह अन्य सभी शिष्य शिवाजी की समर्थ गुरु के प्रति कर्तव्य परायणता और समर्थ गुरु के शिवाजी के प्रति प्रेम को भी समझ गए ।
गुरु सांदीपनि और कृष्ण जी – गुरु की आवश्यकता सिर्फ मनुष्यों को ही नहीं, बल्कि स्वयं भगवान को भी होती है । यह बात गुरु सांदीपनि और कृष्ण जी पर अच्छे से लागू होती है । गुरु सांदीपनि भगवान कृष्ण और बलराम दोनों के गुरु थे । उनके गुरुकुल में कई महान राजाओं के पुत्र पढ़ते थे, लेकिन गुरु सांदीपनि ने कृष्ण जी को पूरी 64 कलाओं की शिक्षा दी थी । भगवान विष्णु के अवतार होने के बाद भी कृष्ण जी ने गुरु सांदीपनि से शिक्षा ग्रहण की । गुरु-शिष्य के इस अनोखे रिश्ते से यह साबित होता है कि कोई भी चाहे कितना ही ज्ञानी हो, फिर भी उसे एक गुरु की आवश्यकता तो होती ही है । यहां पर एक बात यह भी सामने आती है कि जब कृष्ण जी की शिक्षा पूरी हो गई तो गुरु सांदीपनि ने उनसे गुरु दीक्षा के रूप में यमलोक से अपने पुत्र को वापस लाने को कहा और कृष्ण जी ने भी उनके पुत्र को वापस धरती पर लाकर अपनी गुरु दीक्षा दी ।