श्रीहरि का नृसिंह अवतार- कैसे आप अपनी बुरी आत्मा एवं शत्रुओं से रक्षा कर सकते हैं |

शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि बुरी आत्मा एवं शत्रुओं से रक्षा के लिए यदि नृसिंह जयंती के दिन शाम को नृसिंह भगवान के मंत्र का जाप किया जाए तो सभी बाधाओं से अवश्य मुक्ति मिलती है.

हिन्दू पंचांग के अनुसार नृसिंह जयंती का व्रत वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है । अग्नि पुराण में वर्णित कथाओं के अनुसार इसी पावन दिवस को भक्त प्रहलाद की रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप में अवतार लिया था और दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था । राजा हिरण्यकशिपु स्वयं को भगवान से भी अधिक बलवान मानता था । उसे मनुष्य, देवता, पशु-पक्षी, न दिन में, न रात में, न धरती पर, न आकाश में, न अस्त्र से, न शस्त्र से मरने का वरदान प्राप्त था । उसके राज्य में जो भी भगवान विष्णु की पूजा करता था, उसको दंड दिया जाता था । उसके पुत्र का नाम प्रह्लाद था । प्रह्लाद बचपन से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था । यह बात जब हिरण्यकशिपु को पता चली तो पहले उसने प्रह्लाद को समझाने का प्रयास किया, लेकिन जब प्रह्लाद नहीं माना तो हिरण्यकशिपु ने उसे मृत्युदंड दे दिया, लेकिन हर बार भगवान विष्णु के चमत्कार से वह बच गया । एक बार हिरण्यकशिपु की बहन होलिका, जिसे अग्नि से न जलने का वरदान प्राप्त था, वह प्रह्लाद को लेकर धधकती हुई अग्नि में बैठ गई । तब भी भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद बच गया और होलिका जल गई । बाद में जब हिरण्यकशिपु स्वयं प्रह्लाद को मारने लगा, तब भगवान विष्णु नृसिंह का अवतार लेकर क्रुद्ध रूप में खंभे से प्रकट हुए और उन्होंने अपने नाखूनों से हिरण्यकशिपु का वध कर दिया । हिंदू पुराणों में उल्लेख मिलता है कि भगवान विष्णु, यानी श्रीहरि भगवान भोलेनाथ को एक अनोखा उपहार देना चाहते थे और यह उपहार बिना नृसिंह अवतार लिए संभव नहीं था । नृसिंह भगवान ने हिरण्यकशिपु का वध कर दिया, लेकिन फिर भी भगवान का क्रोध शांत नहीं हुआ । भयभीत कर देने वाले इस स्वरूप से नृसिंह भगवान संसार का अंत करने के लिए आतुर हो रहे थे । यह भगवान नृसिंह की ही एक लीला थी । इस लीला से तीनों लोक भयभीत थे । ऐसी विषम परिस्थिति देख सभी देवगण भोलेनाथ के पास पहुंचे । तब शिव ने अपने अंश से उत्पन्न वीरभद्र से कहा कि नृसिंह क्रोध में भरकर संसार को नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं । उन्हें उनके वास्तविक स्वरूप से अवगत कराएं और उनसे निवेदन करो कि वह ऐसा न करें । यदि वह आपका अनुरोध न मानें तो शक्ति का प्रयोग करके नृसिंह को शांत करो । इस तरह वीरभद्र नृसिंह के पास पहुंचे और पहले विनीत भाव से उन्हें शांत करने की कोशिश करने लगे, लेकिन जब नृसिंह भगवान नहीं माने तब उन्हें वश में करने के लिए वीरभद्र गरुड़, सिंह और मनुष्य का मिश्रित रूप धारण करके प्रकट हुए और शरभ कहलाये । शरभ ने नृसिंह को अपने पंजे से उठा लिया और चोंच से वार करने लगा । शरभ के वार से आहत होकर नृसिंह ने अपना शरीर त्याग दिया । इस तरह नृसिंह अवतार का प्रादुर्भाव हुआ था । यह दिन भगवान नृसिंह की जयंती के रूप में बड़े ही धूमधाम और हर्शोल्लास के साथ मनाया जाता है । नृसिंह चतुर्दशी के दिन सुबह जल्दी नित्य कर्मों से निवृत  होकर व्रत के लिए संकल्प करें । इसके बाद दोपहर में नदी, तालाब या घर पर ही वैदिक मंत्रों के साथ मिट्टी, आंवले का फल और तिल लेकर अपने सब पापों की शांति के लिए स्नान करें । इसके बाद साफ कपड़े पहनकर संध्या तर्पण करें । पूजा स्थल को गाय के गोबर से लीप कर उस पर अष्टदल (आठ पंखुड़ियों वाला) कमल बनाएं । कमल के ऊपर पंचरत्न सहित तांबे का कलश स्थापित करें । कलश के ऊपर चावलों से भरा हुआ बर्तन रखें और बर्तन में लक्ष्मी और भगवान नृसिंह की प्रतिमा रखें । इसके बाद दोनों मूर्तियों को पंचामृत से स्नान करवाएं । फूल व षोडशोपचार सामग्रियों से विधिपूर्वक भगवान नृसिंह का पूजन करें और चंदन, कपूर, रोली व तुलसीदल भेंट करके धूप-दीप दिखाएं । इसके बाद नीचे लिखे मंत्र के साथ भोग लगाएं-

नैवेद्यं शर्करां चापि भक्ष्यभोज्यसमन्वितम ।

ददामि ते रमाकांत सर्वपापक्षयं कुरु ।।

(पद्मपुराण, उत्तरखंड 170/62) रात में जागरण करें तथा भगवान नृसिंह की कथा सुनें । दूसरे दिन यानी पूर्णिमा पर स्नान करने के बाद फिर से भगवान नृसिंह की पूजा करें । ब्राह्मणों को भोजन करवाकर दान-दक्षिणा दें और तत्पष्चात् स्वयं भोजन करें । धर्मग्रंथों के अनुसार जो इस प्रकार नृसिंह चतुर्दशी के पर्व पर भगवान नृसिंह की पूजा करता है, उसके मन की हर कामना पूरी हो जाती है ।

 

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