लोहड़ी (Lohri) पर्व की महत्वता सबसे ज़्यादा पंजाब राज्य में देखने को मिलती है | छोटे बच्चे लोहड़ी से कुछ दिन पहले से ही लोहरी के गीत गाते हैं और साथ ही लोहरी के लिए लकड़ियां, मेवे, रेवडियां, मूंगफली इकट्ठा करने लगते हैं। लोहरी वाले दिन शाम को आग जलाई जाती है। अग्नि के चारों ओर लोग चक्कर लगाते हैं और नाचते-गाते हैं। साथ ही आग में रेवड़ी, मूंगफली, खील, मक्की के दानों की आहुति भी देते हैं। लोग आग के चारों ओर बैठते हैं और आग सेंकते हैं व रेवड़ी, खील, गज्जक, मक्का खाते हैं। जिस घर में नई शादी या बच्चा हुआ हो और जिसकी शादी के बाद पहली लोहरी या बच्चे की पहली लोहड़ी होती है उन्हें विशेष तौर पर बधाई देते हैं।

पारंपरिक तौर पर लोहड़ी (Lohri) फसल की बुआई और उसकी कटाई से जुड़ा एक विशेष त्यौहार है। इस दिन अलाव जलाकर उसके इर्द गिर्द नृत्य किया जाता है। लड़के भांगड़ा करते हैं। लड़कियां और महिलाएं गिद्दा करती है। इस दिन विवाहिता पुत्रियों को मां के घर से ‘त्योहार’ (वस्त्र, मिठाई, रेवड़ी, फलादि) भेजा जाता है। वहीं, जिन परिवारों में लड़के का विवाह होता है या जिन्हें पुत्र प्राप्ति होती है, उनसे पैसे लेकर मुहल्ले या गांव भर में बच्चे ही रेवड़ी बांटते हैं।
लोहड़ी (Lohri) मनाने की प्रचलित कथा
एक समय में दो अनाथ लड़कियां थीं। जिनका नाम सुंदरी एवं मुंदरी था। उनकी विधिवत शादी न करके उनका चाचा उन्हें एक राजा को भेंट कर देना चाहता था। उसी समय में एक दुल्ला भट्टी नाम का डाकू हुआ है । उसने सुंदरी एवं मुंदरी को जालिमों से छुड़ा कर उन की शादियां कर दीं। दुल्ला भट्टी ने इस मुसीबत की घड़ी में लड़कियों की मदद की। दुल्ला भट्टी ने लड़के वालों को मनाया और एक जंगल में आग जला कर सुंदरी और मुंदरी का विवाह करवा दिया। उन दोनों का कन्यादान भी दुल्ले ने खुद ही किया। ये भी कहा जाता है कि शगुन के रूप में दुल्ले ने उनको शक्कर दी थी। दुल्ले ने उन लड़कियों को जब विदा किया तब उनकी झोली में एक सेर शक्कर ड़ाली। दुल्ला भट्टी ने ड़ाकू हो कर भी निर्धन लड़कियों के लिए पिता की भूमिका निभाई। साथ ही ये भी कहते हैं कि यह पर्व संत कबीर की पत्नी लोई की याद में मनाते हैं। इसीलिए यह पर्व को लोई भी कहते हैं। इस प्रकार पूरे उत्तर भारत में यह त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है।