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माता महालक्ष्मी व्रत से होगी धन की वृद्धि

नीके दिन जब आइहैं, बनत न लगिहैं देर

जब एक हुआ तो दस होते दस हुए तो सौ की इच्छा है |

सौ पाकर भी यह सोच हुआ की सहस्त्र हों तो अच्छा है |

बस यही हाल है हम सब का जिसके पास जितना है उससे और अधिक की लालसा बनी रहती है हम इस को अच्छा या बुरा तो नहीं कह सकते क्योकि शायद यही प्रकृति का नियम भी है। तो बस हम अपना अनुभव आप के साथ साझा कर रहे है ताकि आप भी अपनी दौड़ में दूर तक सफलता के साथ दौड़ सकें मानव का जन्म मिला है कर्म तो करना ही होगा। यह हमारा दावा है की माता महालक्ष्मी की इस साधना से आप सब को चमत्कारी लाभ हासिल होंगे |

माता महालक्ष्मी व्रत का प्रारम्भ भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से प्रारम्भ  होकर अश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तक चलता है। इन सोलह दिनों में लक्ष्मी जी की पूजा का विधान है। इस व्रत के करने से धन धान्य की वृद्धि होती है और सुख सम्पत्ति आती है। इस साल माता महालक्ष्मी का यह व्रत राधा अष्टमी के दिन से प्रारम्भ होगा। सबसे पहले स्नान करके व्रत का संकल्प लिया जाता है। और मन में प्रार्थना की जाती है की माता लक्ष्मी हम अपना व्रत पूरे विधि विधान से पूरा करेंगे, मुझ पर कृपा करियेगा की मेरा व्रत बिना किसी विघ्न के पूरा हो।

सर्वप्रथम व्रत करने वाले को लाल रंग का रेशमी धागा जिसमे 16 गांठे लगी हो अपनी कलाई (स्त्रियों को बायीं कलाई और पुरुषों को दाहिने) में बांध लेना चाहिए। व्रत के पूरे 16 दिन सुबह और शाम को दूध की बर्फी का भोग मां लक्ष्मी को लगाना चाहिए। पहले दिन ही पूजा के पश्चात यह धागा उतारकर मां लक्ष्मी के चरणों में रख देना चाहिए।

महालक्ष्मी पूजन की सामग्री- लक्ष्मी जी की फोटो जिसके दोनों तरफ हांथी हो जिनकी सूड़ ऊपर की ओर हो, कलश (ताम्बे, पीतल या मिटटी का) आम पल्लव, सूखा नारियल, सफेद रेशमी वस्त्र, लाल रेशमी धागा, गंगा जल, हल्दी, साबुत अक्षत, सुपारी, पान, दूर्वा, कलावा, लाल चुनरी आदि।

कलश- पूजन में ताबें का कलश शुभ माना जाता है। अगर ताम्बे का कलश न मिल पाए तो मिट्टी के कलश का भी उपयोग किया जा सकता है कलश पर वरुण देव आकर विराजमान होते हैं। कलश में डालने के लिए गंगा जल, सुपारी, आम का पल्लव, दूर्वा, नारियल, पैसा, कलश में तांबे के पैसे डालना शुभ है।

सबसे पहले पूजा किए जाने वाले स्थान को साफ कर लें। अब वहां एक पाटा रखें जिस पर हल्दी और कुमकुम से कोई शुभ मांगलिक चिह्न बनाएं। इस पर सफेद रेशमी रंग का कपड़ा बिछाएं अब सबसे पहले श्रीगणेश जी को फिर कलश स्थापित करें कलश, देव मूर्ति के दाहिनी ओर स्थापित करना चाहिए। कलश की स्थापना बालू में जौ डालकर करें और कलश सथापना के समय इस मंत्र का जप करें-

कलशस्य मुखे विष्णु कंठे रुद्र समाषिृतः।

मूलेतस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मात्र गणा स्मृताः।

कुक्षौतु सागरा सर्वे सप्तद्विपा वसुंधरा,

ऋग्वेदो यजुर्वेदो सामगानां अथर्वणाः।

अङेश्च सहितासर्वे कलशन्तु समाश्रिताः।

अर्थ- कलश के मुख में विष्णु, कलश के कंठ यानी गले में शिव और कलश के मूल यानी की जड़ में ब्रह्मा ये तीनों शक्ति इस ब्रह्मांड रुपी कलश में विद्यमान होती हैं। कलश के बीच वाले भाग में पूजनीय मातृकाएं उपस्थित हैं। समुद्र, सातों द्वीप, ब्रह्माण्ड के संविधान कहे जाने वाले चारों वेदों ने (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) इस कलश में स्थान लिए हैं। ये सभी मेरा प्रणाम स्वीकार करें और जपे-

वरुण देव को नमस्कार करें।

ऊँ अपां पतये वरुणाय नमः।

अर्थ- जलदेवता वरुणदेव को नमस्कार है।

इन मंत्रों के साथ कलश पूजन करें। कलश पर गंध, पुष्प्प और चावल अर्पित करें। इसके बाद एक पाटे पर सफेद रेशमी वस्त्र बिछाकर उस पर लक्ष्मी जी की फोटो जिसके दोनों तरफ ऊपर की ओर सूड़ किये हुए हांथी हो अगर फोटो न मिल पाए तो फोटो के दोनों तरफ मिटटी के दो हांथी स्थापित कर दें।

पूजन विधि- इस व्रत में अन्न ग्रहण नहीं किया जाता केवल फलाहार और दूध आदि का सेवन किया जाता है। व्रत संकल्प के समय इस मंत्र का जाप करें-

करिष्येहं महालक्ष्मि व्रतमें त्वत्परायणा।

तदविध्नेन में यातु समप्तिं स्वत्प्रसादतः ।।

इसके बाद मां लक्ष्मी को लाल रंग की चुनरी ओढ़ाये, फिर उनका श्रंृगार करें उसके बाद तिलक लगाकर माला अर्पित करंे फिर फल अक्षत, दूर्वा, लाल सूत, सुपारी, नारियल तथा भोग लगायें व्रत पूरा हो जाने पर वस्त्र से एक मंडप बनाकर उसमें लक्ष्मी जी की प्रतिमा रक्खी जाती है। लक्ष्मी जी को पंचामृत से स्नान कराकर उसका सोलह प्रकार से पूजन किया जाता है। इसके पश्चात ब्रह्माणों को भोजन कराने के बाद दान-दक्षिणा दी जाती है। इस प्रकार यह व्रत पूरा होता है। जो इस व्रत को करता है उसे अष्ट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। सोलहवें दिन इस व्रत का उद्धयापन किया जाता है। जो व्यक्ति किसी कारण से इस व्रत को 16 दिनों तक न कर पायें, वह तीन दिन तक भी इस व्रत को कर सकता है। प्रथम पूर्णिमा और सोलहवा। लगातार सोलह वर्षों तक करने से शुभ फल प्राप्त होते हैं व्रत की प्रचलित कथा है कि प्राचीन समय में एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। वह नियमित रुप से श्री विष्णु का पूजन करता था। उसकी पूजा-भक्ति से प्रसन्न होकर उसे भगवान श्री विष्णु ने दर्शन दिये और ब्राह्मण से अपनी मनोकामना मांगने के लिये कहा, ब्राह्मण ने लक्ष्मी जी का निवास अपने घर में होने की इच्छा जाहिर की। यह सुनकर श्री विष्णु जी ने लक्ष्मी जी की प्राप्ति का मार्ग ब्राह्मण को बता दिया] मंदिर के सामने एक स्त्री आती है] जो यहां आकर उपले थापती है] तुम उसे अपने घर आने का आमंत्रण देना। वह स्त्री ही देवी लक्ष्मी है। देवी लक्ष्मी जी के तुम्हारे घर आने के बाद तुम्हारा घर धन और धान्य से भर जायेगा। यह कहकर श्री विष्णु जी चले गयें। अगले दिन वह सुबह चार बजे ही मंदिर के सामने बैठ गया। लक्ष्मी जी उपले थापने के लिये आईं, तो ब्राह्मण ने उनसे अपने घर आने का निवेदन किया। ब्राह्मण की बात सुनकर लक्ष्मी जी समझ गई, कि यह सब विष्णु जी के कहने से हुआ है। लक्ष्मी जी ने ब्राह्मण से कहा की तुम महालक्ष्मी व्रत करो, 16 दिनों तक व्रत करने और सोलहवें दिन रात्रि को चन्द्रमा को अर्ध देने से तुम्हारा मनोरथ पूरा होगा। ब्राह्मण ने देवी के कहे अनुसार व्रत और पूजन किया और देवी को उत्तर दिशा की ओर मुंह करके तीन बार-

“हे माता लक्ष्मी मेरे घर आजाओ”

“हे माता लक्ष्मी मेरे घर आजाओ”

“हे माता लक्ष्मी मेरे घर आजाओ” पुकारा और तब लक्ष्मी जी ने अपना वचन पूरा किया। तभी से यह व्रत विधि-पूर्वक पूरी श्रद्धा से किया जाता है।

उद्यापन विधि- व्रत के उद्यापन वाले दिन दो नए सूप] 16 नयी चीजे जिसमे श्रृंगार वस्त्र आभूषण] मिठाई] फल मेवा हो (सभी चीजो की संख्या 16 होनी चाहिये) सारे सामान को एक सूप में रखकर दूसरे सूप से ढक दें ध्यान रहे की एक बार ढकने के बाद इसे दोबारा खोला नहीं जाना चाहिये। व्रत के आखिरी दिन रात में खीर, पूड़ी सब्जी रायता चटनी भोजन में बनाना चाहिए। भोजन में लहसन प्याज का उपयोग नहीं करना चाहिए पूजा के बाद रात में चन्द्रमा को अर्घ देने के बाद चांदी की थाली में भोजन को रखकर लक्ष्मी जी के सामने रखना चाहिए। लक्ष्मी जी के लिए सफेद रेशमी वस्त्र का आसान लगाये। इस बात का ध्यान रहे की लक्ष्मी जी का मुह उत्तर की ओर और व्रती का पूरब की ओर हो। भोग लगाने के बाद दुबारा सभी चीजो को थाली में डालकर वही रख दें और वही पास में ही बैठकर भोजन करें व्रत के दूसरे दिन लक्ष्मी जी को लगाये गए भोग को गाय को दे, और चढ़ाये गए सामान को व्रत करने वालें को दें|

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